“चिता की आग ने सिखाया अमर होने का रास्ता”

श्मशान की उस रात हवा में चुप थी। चिता की लपटें धीरे-धीरे उठ रही थीं और उनके बीच एक बूढ़ा आदमी अकेला खड़ा था। नाम था उनका—रामप्रसाद। साठ साल की नौकरी, दो मंजिला मकान, बैंक में अच्छी-खासी रकम, बेटा विदेश में सेटल, बेटी की शादी धूमधाम से हुई। सब कुछ था।

पर चिता पर जो जल रहा था, वह उनका अपना बड़ा भाई था—गोविंद।
गोविंद जिसके पास न मकान था, न बैंक बैलेंस। बस एक छोटी-सी किताबों की दुकान थी गाँव के चौक में। दिन भर बच्चों को मुफ्त ट्यूशन देता, रात को गाँव के बाहर अनाथालय में सोता। लोग कहते थे—“पागल है गोविंद, जिंदगी बर्बाद कर दी।”

रामप्रसाद ने चिता को देखते हुए आँखें बंद कीं। अचानक याद आया—बीस साल पहले की उम्र में दोनों भाइयों ने साथ बैठकर सपने बुने थे।
गोविंद ने कहा था, “दादा, मैं दुनिया को बदलना चाहता हूँ।”
रामप्रसाद ने हँसकर कहा था, “पहले अपनी जिंदगी तो संभाल, दुनिया बाद में बदलना।”

फिर जिंदगी भागी।
रामप्रसाद ने नौकरी पकड़ी, प्रमोशन लिया, पैसा कमाया, नाम कमाया।
गोविंद ने किताबें बेचीं, बच्चों को पढ़ाया, भूखों को खिलाया। लोग उसे पागल कहते रहे। रामप्रसाद भी मन-ही-मन सोचते—“सही कहते हैं लोग।”

आज चिता पर गोविंद जल रहा था।
और श्मशान घाट पर भीड़ थी ऐसी कि जगह नहीं थी खड़े होने की।
गाँव के सैकड़ों बच्चे रो रहे थे—जिन्हें गोविंद ने पढ़ाया था, जिनके सपनों को पंख दिए थे।
एक लड़की आई, जिसकी आँखें लाल। उसने रामप्रसाद के पैर छुए और बोली,
“चाचा जी, आपके भाई ने मेरी फीस भरी थी। आज मैं डॉक्टर हूँ। ये स्टेथोस्कोप उसी का दिया हुआ है।”

एक जवान लड़का आया, हाथ में ट्रॉफी थी। बोला, “मैं राज्य स्तरीय एथलीट हूँ। चाचा जी ने मुझे जूते खरीदकर दिए थे जब मेरे पिता शराब पीकर सब बेच देते थे।”

एक बूढ़ी औरत आई। उसने चिता के पास माथा टेका और फूट-फूट कर रोने लगी।
बोली, “मेरा बेटा जेल में था। गोविंद बाबू हर रविवार को जेल जाते थे, उसे अच्छाई का पाठ पढ़ाते थे। आज मेरा बेटा बाहर है, इज्जत से जी रहा है।”

रामप्रसाद की आँखों से आँसू नहीं रुक रहे थे।
उन्होंने आसमान की ओर देखा और धीरे से बोले,
“भैया, तुम हारे नहीं। तुम जीते। मैं हारा। मैंने साठ साल जिया, पर जिया नहीं। तुम मरे, पर अमर हो गए।”

चिता की आग बुझी। राख उड़ने लगी।
रामप्रसाद ने उस राख को हाथ में लिया और मन-ही-मन प्रण लिया—
“अब तक मैंने अपने लिए जिया। अब बाकी की जिंदगी तेरे सपने को पूरा करने में लगाऊँगा।”

अगले दिन से गाँव में एक नया अनाथालय खुला।
नाम रखा गया—“गोविंद भाई अनाथालय”।
और उस अनाथालय के बाहर एक छोटा-सा बोर्ड लगा था, जिस पर लिखा था:

“हम यहाँ इसलिए नहीं हैं कि हम जीवित रहें।
हम यहाँ इसलिए हैं कि जब हम मरें,
तो हमारा मरना भी किसी की जिंदगी बन जाए।”

श्मशान घाट चुप था।
पर उस रात उसने बहुतों को जगाया था।
कि अंतिम सत्य यही है—
हम जो लेकर आए हैं, वह यहीं छूट जाएगा।
हम जो देकर जाएँगे, वही साथ जाएगा।

जो देगा, वही अमर होगा।

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