श्मशान की पुकार : एक नई सुबह की कहानी

गाँव का नाम था कालिंदीपुर। गाँव के बाहर, नदी के किनारे बसा था पुराना श्मशान घाट। बरसों से वहीं अंतिम संस्कार होते आए थे। चारों तरफ़ जंगली घास, टूटे-फूटे चबूतरे, बारिश में कीचड़ और गर्मियों में धूल। लकड़ी रखने की कोई छाँव नहीं, पानी की व्यवस्था नहीं, बैठने तक की जगह नहीं। लोग आते, रोते, जल्दी-जल्दी संस्कार करके चले जाते। किसी को फुर्सत नहीं थी कि दो पल रुक कर सोचे — जो जगह जीवन की अंतिम यात्रा का साक्षी है, क्या वह खुद इतनी उपेक्षित रहे?

एक दिन गाँव में रामप्रसाद जी का देहांत हुआ। वे साठ साल के थे। स्कूल में अध्यापक थे, सबके चहेते। उनके बेटे विकास शहर में नौकरी करता था। वह जब अंतिम संस्कार के लिए आया तो श्मशान की हालत देखकर उसका दिल बैठ गया। लकड़ी गीली थी, चिता जलने में देर लग रही थी। बुजुर्ग माँ धूप में खड़ी-खड़ी थक गई थीं। कोई छायादार जगह नहीं थी। पानी के लिए आधा किलोमीटर दूर नदी जाना पड़ा। विकास ने मन ही मन कहा, “इतने सम्मानित इंसान के लिए भी हम इतनी खराब व्यवस्था नहीं सुधार पाए?”

संस्कार खत्म हुआ। लोग लौटने लगे। विकास वहीं चबूतरे पर बैठ गया। शाम होने को थी। नदी में सूरज डूब रहा था। अचानक उसे लगा जैसे कोई उससे बात कर रहा हो। उसने इधर-उधर देखा — कोई नहीं था। फिर भी आवाज़ आई, धीमी, गहरी —

“बेटा, तुम सब मुझे भूल गए हो। मैं तुम्हारा श्मशान हूँ। सदियों से तुम्हारे पूर्वजों को गोद में लेकर मैंने उन्हें विदा किया है। मैंने तुम्हारी दादी को सीने से लगाया, तुम्हारे बाबा को कंधा दिया, आज तुम्हारे पिता को भी। पर मुझे कोई नहीं पूछता। न छाँव, न जल, न प्रकाश। मैं अंधेरे में डूबा रहता हूँ। क्या मृत्यु के बाद का सम्मान भी जीते जी तय नहीं होना चाहिए?”

विकास सन्न रह गया। उसने सोचा, शायद थकान की वजह से भ्रम हो रहा है। लेकिन रात भर वह आवाज़ उसके कानों में गूँजती रही।

अगले दिन वह गाँव के युवकों को इकट्ठा करने निकला। पहले तो सब हँसे। “अरे श्मशान सुधारने से क्या होगा? वहाँ तो मरने के बाद जाना है!” विकास ने शांत स्वर में कहा, “हम मरने के बाद नहीं, अपने बुजुर्गों को विदा करने जाते हैं। हम अपनी माँ-बाप को कीचड़ में खड़ा करेंगे? हम अपनी आने वाली पीढ़ी को यही संस्कार देंगे कि मृत्यु के बाद भी इंसान की कोई कीमत नहीं?”

धीरे-धीरे बात फैली। महिलाएँ भी आगे आईं। बुजुर्गों ने कहा, “हमारा अंतिम संस्कार अगर सम्मान से हो, तो हमें मरने से पहले सुकून मिलेगा।”

गाँव वालों ने मिलकर योजना बनाई।

  • सबसे पहले श्मशान की सफाई की।
  • पंचायत से कुछ राशि ली, कुछ चंदा इकट्ठा किया।
  • पक्का चबूतरा बनवाया, लकड़ी रखने का शेड बनाया।
  • बोरवेल करवाया ताकि पानी की कमी न रहे।
  • पेड़ लगाए — पीपल, नीम, आम।
  • सोलर लाइट लगवाई ताकि रात में भी अंधेरा न रहे।
  • एक छोटा सा प्रतीक्षालय बनाया जहाँ परिवार वाले बैठ सकें।
  • दीवार पर लिखवाया — “यह स्थान जीवन के सम्मान का अंतिम पड़ाव है। इसे स्वच्छ और पवित्र रखें।”

छह महीने बाद जब गाँव में किसी और का अंतिम संस्कार हुआ, तो लोग हैरान रह गए। पहले जहाँ लोग जल्दी-जल्दी निपटाकर भागते थे, अब वे रुकते थे। बुजुर्ग शांति से बैठते थे। बच्चे भी समझते थे कि मृत्यु भी जीवन का हिस्सा है और उसे गरिमा के साथ विदा करना चाहिए।

विकास अब भी कभी-कभी शाम को श्मशान जाता है। अब वहाँ पक्षियों की चहचहाहट होती है, पेड़ों की छाँव होती है। वह मुस्कुराकर कहता है, “अब तुम खुश हो न?”

हवा में जैसे कोई धीरे से कहता, “हाँ बेटा, अब मुझे लगता है, मैं भी जीवित हूँ।”

संदेश साफ है — श्मशान घाट कोई भयावह जगह नहीं, वह जीवन की सच्चाई का आईना है। जिस समाज में मृत्यु को भी सम्मान मिलता है, वहाँ जीवित लोगों का सम्मान अपने आप बढ़ जाता है।

आइए, अपने-अपने गाँव, कस्बे, शहर के श्मशान घाट को एक स्वच्छ, सुंदर और सुविधा-संपन्न स्थान बनाएँ। यह न केवल हमारे पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता है, बल्कि आने वाली पीढ़ियों को यह सिखाना है कि “जीवन का अंत भी उतना ही पवित्र है जितना उसका आरंभ।”

जय महाकाल

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